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॥ श्रीहरिः ॥
विवेक-चूडामणि
दिगन्तानि
नन्दितानि पूर्णानन्दं प्रभुं वन्दे
यस्यानन्दाम्बुविन्दुना । स्वानन्दैकस्वरूपिणम् ॥
मंगलाचरण
तमगोचरम् ।
सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥
जो अज्ञेय होकर भी सम्पूर्ण वेदान्तके सिद्धान्त - वाक्योंसे जाने जाते हैं, उन परमानन्दस्वरूप सद्गुरुदेव श्रीगोविन्दको मैं प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मनिष्ठाका महत्त्व
दुर्लभं
मनुष्यत्वं
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिक धर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम् । आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थितिमुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥
जीवोंको प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होनेसे भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है । [ यह सब कुछ होनेपर भी ] आत्मा और अनात्माका विवेक, सम्यक् अनुभव, ब्रह्मात्मभावसे स्थिति और मुक्ति- ये तो करोड़ों जन्मोंमें किये हुए शुभ कर्मोंके परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते।
मुमुक्षुत्वं
त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् । महापुरुषसंश्रयः ॥ ३ ॥