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प्रेमकी आत्मार्थता
अहंकार
चक्षुरादिषु
अन्तःकरणमेतेषु अहमित्यभिमानेन
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वर्ष्मणि । तिष्ठत्याभासतेजसा ॥ १०५ ॥
शरीरके अन्दर इन चक्षु आदि इन्द्रियों (इन्द्रियके गोलकों) -में चिदाभासके तेजसे व्याप्त हुआ अन्तःकरण 'मैं-पन' का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।
अहङ्कारः स विज्ञेयः कर्ता भोक्ताभिमान्ययम् ।
सत्त्वादिगुणयोगेन
चावस्थात्रयमश्नुते ॥ १०६ ॥
इसीको अहंकार जानना चाहिये। यही कर्ता, भोक्ता तथा मैं-पनका अभिमान करनेवाला है और यही सत्त्व आदि गुणोंके योगसे तीनों अवस्थाओंको प्राप्त होता है।
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दुःखी विपर्यये ।
सुखं दुःखं च तद्धर्मः सदानन्दस्य नात्मनः ॥ १०७ ॥ विषयोंकी अनुकूलतासे यह सुखी और प्रतिकूलतासे दुःखी होता है। सुख और दुःख इस अहंकारके ही धर्म हैं, नित्यानन्दस्वरूप आत्माके नहीं। प्रेमकी आत्मार्थता
आत्मार्थत्वेन हि प्रेयान् विषयो न स्वतः प्रियः । स्वत एव हि सर्वेषामात्मा प्रियतमो यतः ॥ १०८ ॥ विषय स्वतः प्रिय नहीं होते, किन्तु आत्माके लिये ही प्रिय होते हैं, क्योंकि स्वतः प्रियतम तो सबका आत्मा ही है।
तत आत्मा सदानन्दो नास्य दुःखं कदाचन । यत्सुषुप्तौ निर्विषय आत्मानन्दोऽनुभूयते । श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं च जाग्रति ॥ १०९ ॥ इसलिये आत्मा सदा आनन्दस्वरूप है, इसमें दुःख कभी नहीं है। तभी सुषुप्ति में विषयोंका अभाव रहते हुए भी आत्मानन्दका अनुभव होता