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देहासक्तिकी निन्दा
विषयाख्यग्रहो येन सुविरक्त्यसिना हतः। स गच्छति भवाम्भोधेः पारं प्रत्यूहवर्जितः ।। ८२॥
जिसने वैराग्यरूपी खड्गसे विषयैषणारूपी ग्राहको मार दिया है, वही निर्विघ्न संसार-समुद्रके उस पार जा सकता है। विषमविषयमार्गर्गच्छतोऽनच्छबुद्धेः
प्रतिपदमभियातो मृत्युरप्येष विद्धि। हितसुजनगुरूक्त्या गच्छतः स्वस्य युक्त्या
प्रभवति फलसिद्धिः सत्यमित्येव विद्धि॥८३॥ विषयरूपी विषम मार्गमें चलनेवाले मलिनबुद्धिको पद-पदपर मृत्यु आती है-ऐसा जानो। और यह भी बिलकुल ठीक समझो कि हितैषी, सज्जन अथवा गुरुके कथनानुसार अपनी युक्तिसे चलनेवालेको फलसिद्धि हो ही जाती है। मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति
त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा। पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव
प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात्॥८४॥ यदि तुझे मोक्षकी इच्छा है तो विषयोंको विषके समान दूरहीसे त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दमका अमृतके समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर।
देहासक्तिकी निन्दा अनुक्षणं यत्परिहृत्य कृत्य
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम्। देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥८५॥ जो अनादि अविद्याकृत बन्धनको छुड़ानारूप अपना कर्तव्य त्यागकर