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भगवान् शंकराचार्य और विवेक-चूडामणि
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वापस आये और वहाँ ज्योतिर्मठकी स्थापना कर तोटकाचार्यको मठाधीश बनाया। वहाँसे ये केदारक्षेत्र आये और यहींसे कुछ दिनों बाद सीधे देवलोक चले गये।
यों तो शंकराचार्यके लिखे हुए लगभग २७२ ग्रन्थ बताये जाते हैं, परंतु यह कहना कठिन है कि वे सब उन्हींके लिखे हुए हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इनमें से कुछ आचार्योंद्वारा रचित पीछेके होंगे जो पश्चाद्वर्ती शंकराचार्यकी उपाधि धारण करनेवाले हुए और जिन्होंने अपने पूरे नाम नहीं दिये । जो हो, प्रधान - प्रधान ग्रन्थ ये हैं - ब्रह्मसूत्रभाष्य, उपनिषद् (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनीय, श्वेताश्वतर इत्यादि) भाष्य, गीताभाष्य, विष्णुसहस्रनामभाष्य, सनत्सुजातीयभाष्य, हस्तामलकभाष्य, ललितात्रिशतीभाष्य, विवेकचूडामणि, प्रबोधसुधाकर, उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति, शतश्लोकी, दशश्लोकी, सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह, वाक्सुधा, पंचीकरण, प्रपंचसारतन्त्र, आत्मबोध, मनीषापंचक, आनन्दलहरीस्तोत्र इत्यादि ।
विवेक-चूडामणिका संक्षिप्त परिचय
आचार्यद्वारा रचित यद्यपि छोटे-बड़े सैकड़ों ग्रन्थ हैं, पर विवेक-चूडामणि साधना और संक्षिप्तमें सम्यक् ज्ञानोपलब्धिकी दृष्टिसे सर्वोत्तम है। इसके अनुसार मनुष्य- जन्म पाकर संसारको विलोप करते हुए सर्वत्र शुद्ध भगवद्-दृष्टि प्राप्तकर सर्वथा जीवनन्मुक्त होकर कैवल्य-प्राप्ति ही सर्वोत्तम सिद्धि है। इसी बातको उन्होंने गीताभाष्य, ब्रह्मसूत्रभाष्य आदिमें विस्तारसे प्रतिपादित किया है। पर आचार्य कहते हैं कि यह अवस्था अनन्त जन्मोंके पुण्यके बिना प्राप्त नहीं होती
मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥
(वि०चू०म० २)
यही बात गीतामें भगवान् कृष्ण भी कहते हैंअनेकजन्मसंसिद्धस्ततो
याति
परां
गतिम् ॥
(गीता ६ । ४५)