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भगवान् शंकराचार्य और विवेक चूडामणि
सूत्रका भाष्य लिखनेकी आज्ञा दी और वे काशी आ गये। काशी आनेपर उनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकृष्ट होकर उनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे। उनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए जो पीछे 'पद्मपादाचार्य' के नामसे प्रसिद्ध हुए। काशीमें शिष्योंको पढ़ानेके साथ-साथ वे ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं, एक दिन भगवान् विश्वनाथने उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखने और धर्मका प्रचार करनेका आदेश दिया। वेदान्तसूत्रपर जब वे भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मणने गंगातटपर उनसे एक सूत्रका अर्थ पूछा। उस सूत्रपर ब्राह्मणके साथ उनका सत्ताईस दिनोंतक शास्त्रार्थ चलता रहा। पीछे उन्हें मालूम हुआ कि स्वयं भगवान् वेदव्यास ब्राह्मणके वेशमें प्रकट होकर उनके साथ विवाद कर रहे हैं। तब उन्होंने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और क्षमा माँगी। फिर वेदव्यासने उन्हें अद्वैतवादका प्रचार करनेकी आज्ञा दी और उनकी १६ वर्षकी अल्पायुको ३२ वर्ष बढ़ा दिया। इस घटनाके बाद शंकराचार्य दिग्विजयके लिये निकल पड़े।
काशीमें रहते समय शंकराचार्यने वहाँ रहनेवाले प्रायः सभी विरुद्ध मतवालोंको परास्त कर दिया। वहाँसे कुरुक्षेत्र होते हुए वे बदरिकाश्रम गये। वहाँ कुछ दिन रहकर उन्होंने कुछ और ग्रन्थ लिखे। जो ग्रन्थ उनके मिलते हैं, प्रायः सबको उन्होंने काशी अथवा बदरिकाश्रममें ही लिखा । १२ वर्षसे १६ वर्षतककी अवस्थामें उन्होंने सारे ग्रन्थ लिख डाले। बदरिकाश्रमसे चलकर शंकर प्रयाग आये और यहाँ कुमारिलभट्टसे उनकी भेंट हुई। कुमारिलभट्टके कथनानुसार वे प्रयागसे माहिष्मती (महेश्वर) नगरीमें मण्डनमिश्र के पास शास्त्रार्थके लिये आये। यहाँ मण्डनमिश्रके घरका दरवाजा बंद होनेके कारण योगबलसे वे आँगनमें चले गये, जहाँ मण्डनमिश्र श्राद्ध कर रहे थे और शास्त्रार्थ करनेके लिये कहा। उस शास्त्रार्थमें मध्यस्थ बनायी गयीं मण्डनमिश्रकी विदुषी पत्नी भारती । अन्तमें मण्डनमिश्रकी पराजय हुई और उन्होंने शंकराचार्यका शिष्यत्व ग्रहण किया और ये ही आगे चलकर सुरेश्वराचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। कहते हैं, भारतीने पतिके हार जानेपर स्वयं शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया और कामशास्त्र सम्बन्धी प्रश्न पूछे, जिसके लिये शंकराचार्यको योगबलसे मृत राजा अमरुकके शरीरमें प्रवेश कर कामशास्त्रकी शिक्षा ग्रहण करनी
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