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विवेक-चूडामणि
शिष्य-प्रशंसा
श्रीगुरुरुवाच धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि पावितं ते कुलं त्वया। यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ॥५२॥
गुरु-तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझसे पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धनसे छूटकर ब्रह्मभावको प्राप्त होना चाहता है।
स्व-प्रयत्नकी प्रधानता ऋणमोचनकर्तारः पितुः सन्ति सुतादयः। बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ॥५३॥
पिताके ऋणको चुकानेवाले तो पुत्रादि भी होते हैं, परन्तु भवबन्धनसे छुड़ानेवाला अपनेसे भिन्न और कोई नहीं है। मस्तकन्यस्तभारादेर्दुःखमन्यैर्निवार्यते । क्षुदादिकृतदुःखं तु विना स्वेन न केनचित्॥५४॥
[ जैसे ] सिरपर रखे हुए बोझेका दुःख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदिका दुःख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता। पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ॥ ५५ ॥
अथवा जैसे जो रोगी पथ्य और औषधका सेवन करता है उसीको आरोग्य-सिद्धि होती देखी जाती है, किसी औरके द्वारा किये हुए कर्मोसे कोई नीरोग नहीं होता। वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन। चन्द्रस्वरूपं निजचक्षुषैव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम्॥५६॥ [ वैसे ही ] विवेकी पुरुषको वस्तुका स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञान