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तूष्णीमवस्था
ब्रह्मात्मना ब्रह्मविदो महात्मनो
परमोपशान्तिर्बुद्धेरसत्कल्पविकल्पहेतोः
यत्राद्वयानन्दसुखं निरन्तरम् ।। ५२७ ।।
महात्मा ब्रह्मवेत्ताके मिथ्या विकल्पोंकी हेतुभूता बुद्धिकी जो ब्रह्मभावसे मौनावस्था है वही परम उपशम है, जिसमें कि निरन्तर अद्वयानन्दरसका अनुभव होता है।
नास्ति निर्वासनान्मौनात्परं सुखकृदुत्तमम् ।
विवेक-चूडामणि
विज्ञातात्मस्वरूपस्य
स्वानन्दरसपायिनः ॥ ५२८ ॥
जिसने आत्मस्वरूपको जान लिया है उस स्वानन्दरसका पान करनेवाले पुरुषके लिये वासनारहित मौनसे बढ़कर उत्तम सुखदायक और कुछ भी नहीं है।
गच्छंस्तिष्ठन्नुपविशञ्छ्यानो वान्यथापि वा । यथेच्छ्या वसेद्विद्वानात्मारामः सदा मुनिः ॥ ५२९ ॥ विद्वान् मुनिको उचित है कि चलते-फिरते, बैठते-उठते, सोते-जागते अथवा किसी और अवस्थामें रहते निरन्तर आत्मामें रमण करता हुआ इच्छानुकूल रहे। न
देशकालासनदिग्यमादि
लक्ष्याद्यपेक्षा
संसिद्धतत्त्वस्य
प्रतिबद्धवृत्तेः ।
महात्मनोऽस्ति
स्ववेदने
का नियमाद्यपेक्षा ॥ ५३० ॥
जिसकी चित्तवृत्ति निरन्तर आत्मस्वरूपमें लगी रहती है तथा जिसे आत्मतत्त्वकी सिद्धि हो गयी है उस महापुरुषको [ ध्यानादिके उपयोगी ] देश, काल, आसन, दिशा, यम, नियम तथा लक्ष्य आदिकी कोई आवश्यकता नहीं है। अपने-आपको जाननेके लिये भला नियम आदिकी क्या अपेक्षा है ?