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उपदेशका उपसंहार
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कस्तां परानन्दरसानुभूति
मुत्सृज्य शून्येषु रमेत विद्वान्। चन्द्रे महाह्लादिनि दीप्यमाने
चित्रेन्दुमालोकयितुं क इच्छेत्॥५२३॥ उस परमानन्दरसके अनुभवको छोड़कर अन्य थोथे विषयोंमें कौन बुद्धिमान् रमण करेगा? अति आनन्ददायक पूर्णचन्द्रके प्रकाशित रहते हुए चित्र-लिखित चन्द्रमाको देखनेकी इच्छा कौन करेगा? असत्पदार्थानुभवे न किञ्चि
न ह्यस्ति तृप्तिन च दुःखहानिः। तदद्वयानन्दरसानुभूत्या
तृप्तः सुखं तिष्ठ सदात्मनिष्ठया॥५२४॥ असत् पदार्थों के अनुभवसे न तो कुछ तृप्ति ही होती है और न दुःखका नाश ही; अतः इस अद्वयानन्दरसके अनुभवसे तृप्त होकर सत्य आत्मनिष्ठ-भावसे सुखपूर्वक स्थित हो। स्वमेव सर्वथा पश्यन्मन्यमानः स्वमद्वयम्। स्वानन्दमनुभुजानः कालं नय महामते॥५२५॥
हे महाबुद्धे ! सब ओर केवल अपनेको ही देखता हुआ, अपनेको अद्वितीय मानता हुआ और आत्मानन्दका अनुभव करता हुआ कालक्षेप कर। अखण्डबोधात्मनि निर्विकल्पे
विकल्पनं व्योम्नि पुरःप्रकल्पनम्। तदद्वयानन्दमयात्मना सदा
शान्तिं परामेत्य भजस्व मौनम्॥५२६॥ अखण्डबोधस्वरूप निर्विकल्प आत्मामें किसी विकल्पका होना आकाशमें नगरकी कल्पनाके समान है। इसलिये अद्वितीय आनन्दमय आत्मस्वरूपसे स्थित होकर परमशान्ति लाभ कर मौन धारण करो।