________________
जीवन्मुक्तके लक्षण
११७
प्रारब्धकी समाप्तिपर्यन्त छायाके समान सदैव साथ रहनेवाले इस शरीरके वर्तमान रहते हुए भी इसमें अहं-ममभाव (मैं-मेरापन)का अभाव हो जाना जीवन्मुक्तका लक्षण है। अतीताननुसन्धानं भविष्यदविचारणम्। औदासीन्यमपि प्राप्ते जीवन्मुक्तस्य लक्षणम्॥ ४३३॥
बीती हुई बातको याद न करना, भविष्यको चिन्ता न करना और वर्तमानमें प्राप्त हुए सुख-दुःखादिमें उदासीनता-यह जीवन्मुक्तका लक्षण है।
गुणदोषविशिष्टेऽस्मिन्स्वभावेन विलक्षणे। सर्वत्र समदर्शित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम्॥४३४॥
अपने आत्मस्वरूपसे सर्वथा पृथक् इस गुणदोषमय संसारमें सर्वत्र समदर्शी होना जीवन्मुक्तका लक्षण है। इष्टानिष्टार्थसम्प्राप्तौ समदर्शितयात्मनि। उभयत्राविकारित्वं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम्॥ ४३५॥
इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तुकी प्राप्तिमें समानभाव रखनेके कारण दोनों ही अवस्थाओंमें चित्तमें कोई भी विकार न होना जीवन्मुक्त पुरुषका लक्षण है। ब्रह्मानन्दरसास्वादासक्तचित्ततया यतेः। अन्तर्बहिरविज्ञानं जीवन्मुक्तस्य लक्षणम्॥४३६॥
ब्रह्मनन्दरसास्वादमें चित्तकी आसक्ति रहनेके कारण बाह्य और आन्तरिक वस्तुओंका कोई ज्ञान न होना जीवन्मुक्त यतिका लक्षण है। देहेन्द्रियादौ कर्तव्ये ममाहंभाववर्जितः। औदासीन्येन यस्तिष्ठेत्स जीवन्मुक्तलक्षणः ॥ ४३७॥
देह तथा इन्द्रिय आदिमें और कर्तव्यमें जो ममता और अहंकारसे रहित होकर उदासीनतापूर्वक रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्तके लक्षणसे युक्त है। विज्ञात आत्मनो यस्य ब्रह्मभावः श्रुतेर्बलात्। भवबन्धविनिर्मुक्तः स जीवन्मुक्तलक्षणः ॥ ४३८॥
जिसने श्रुति-प्रमाणसे अपने आत्माका ब्रह्मत्व जान लिया है और जो संसार-बन्धनसे रहित है, वह पुरुष जीवन्मुक्तके लक्षणोंसे सम्पन्न है।