________________
११६
विवेक-चूडामणि
शोधितयोरेकभावावगाहिनी ।
ब्रह्मात्मनोः निर्विकल्पा च चिन्मात्रा वृत्तिः प्रज्ञेति कथ्यते । सुस्थिता सा भवेद्यस्य जीवन्मुक्तः स उच्यते ॥ ४२८ ॥
[ 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्योंसे ] शोधित ब्रह्म और आत्माकी एकताको ग्रहण करनेवाली विकल्परहित चिन्मात्र वृत्तिको प्रज्ञा कहते हैं। यह चिन्मात्रवृत्ति जिसकी स्थिर हो जाती है, वही जीवन्मुक्त कहा जाता है।
यस्य स्थिता भवेत्प्रज्ञा यस्यानन्दो निरन्तरः । प्रपञ्चो विस्मृतप्रायः स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४२९ ॥ जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जो निरन्तर आत्मानन्दका अनुभव करता है और प्रपंचको भूला-सा रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। लीनधीरपि जागर्ति यो जाग्रद्धर्मवर्जितः । बोधो निर्वासनो यस्य स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४३० ॥
वृत्तिके लीन रहते हुए भी जो जागता रहता है किन्तु वास्तवमें जो जागृतिके धर्मोसे रहित है* तथा जिसका बोध सर्वथा वासनारहित है, वह पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है।
शान्तसंसारकलनः कलावानपि निष्कलः ।
य: सचित्तोऽपि निश्चिन्तः स जीवन्मुक्त इष्यते ॥ ४३१ ॥
जिसकी संसार - वासना शान्त हो गयी है, जो कलावान् होकर भी कलाहीन है अर्थात् व्यवहारदृष्टिमें ऊपरसे विकारवान् प्रतीत होता हुआ भी जो निरन्तर अपने निर्विकार स्वरूपमें ही स्थित रहता है तथा जो चित्तयुक्त होनेपर निश्चिन्त है, वह पुरुष जीवन्मुक्त माना जाता है। वर्तमानेऽपि देहेऽस्मिञ्छायावदनुवर्तिनि । अहंताममंताभावो जीवन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥। ४३२ ।।
* 'वृत्तिके लीन रहते हुए भी जो जागता रहता हैं' इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि उसका चित्त सम्पूर्ण दृश्य पदार्थोंका बाध करके निरन्तर ब्रह्ममें लीन रहता है तथापि वह सोये हुए पुरुषके समान संज्ञाशून्य नहीं हो जाता, सब व्यवहार यथावत् करता रहता है। किन्तु व्यवहार करते हुए भी उसे स्वप्नवत् समझनेके कारण उसकी अन्य पुरुषोंके समान दृश्य पदार्थोंमें आस्था नहीं होती। इसलिये 'वास्तवमें वह जागृतिके धर्मोसे रहित हैं। '