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विवेक-चूडामणि
आत्मज्ञानमें सम्यक् सिद्धि प्राप्त किये हुए जीवन्मुक्त योगीको यही फल मिलता है कि अपने आत्माके नित्यानन्दरसका बाहर-भीतर निरन्तर आस्वादन किया करे।
वैराग्यस्य फलं बोधो बोधस्योपरतिः फलम् ।
स्वानन्दानुभवाच्छान्तिरेषैवोपरतेः
फलम् ॥ ४२० ॥ वैराग्यका फल बोध है और बोधका फल उपरति ( विषयोंसे उदासीनता) है तथा उपरतिका फल यही है कि आत्मानन्दके अनुभवसे चित्त शान्त हो जाय ।
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यद्युत्तरोत्तराभावः पूर्वपूर्वं तु निष्फलम् । निवृत्तिः परमा तृप्तिरानन्दोऽनुपमः स्वतः ।। ४२१ ।।
यदि पिछली - पिछली वस्तुओंकी प्राप्ति न हो तो पहली बातें निष्फल हैं [ अर्थात् आत्मशान्तिके बिना उपरति, उपरतिके बिना बोध और बोधके बिना वैराग्य निष्फल हैं ]। विषयोंसे निवृत्त हो जाना ही परम तृप्ति है और वही साक्षात् अनुपम आनन्द है । दृष्टदुःखेष्वनुद्वेगो विद्याया: प्रस्तुतं फलम् । यत्कृतं भ्रान्तिवेलायां नाना कर्म जुगुप्सितम् । पश्चान्नरो विवेकेन तत्कथं कर्तुमर्हति ॥ ४२२ ॥
प्रारब्धवश प्राप्त हुए दुःखोंसे विचलित न होना ही आत्मज्ञानका सबसे पहला फल है। भ्रान्तिके समय पुरुषने जो नाना प्रकारके निन्दनीय कर्म किये हैं उन्हींको ज्ञान हो जानेके उपरान्त वह विवेकपूर्वक कैसे कर सकता है ? विद्याफलं स्यादसतो निवृत्तिः
प्रवृत्तिरज्ञानफलं
तदीक्षितम् ।
नो चेद्विदो दृष्टफलं किमस्मात् ॥ ४२३ ॥
विद्याका फल असत्से निवृत्त होना और अविद्याका उसमें प्रवृत्त होना है। ये दोनों फल ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषोंकी मृगतृष्णा आदिकी प्रतीतिमें उसे
तज्ज्ञाज्ञयोर्यन्मृगतृष्णिकादौ