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आत्मज्ञानका फल
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याद भी मत करो, क्योंकि उगली हुई वस्तु तो याद करनेपर उलटी जी बिगाड़नेवाली ही होती है। समूलमेतत्परिदह्य वह्नौ
सदात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे। ततः स्वयं नित्यविशुद्धबोधा
नन्दात्मना तिष्ठति विद्वरिष्ठः॥ ४१६॥ विचारवानोंमें श्रेष्ठ महात्माजन इस स्थूल-सूक्ष्म जगत्को इसके मूलकारण मायाके सहित निर्विकल्प सत्स्वरूप ब्रह्माग्निमें भस्म करके फिर स्वयं नित्य विशुद्ध बोधानन्दस्वरूपसे स्थित रहते हैं। प्रारब्धसूत्रग्रथितं
शरीरं प्रायातु वा तिष्ठतु गोरिव स्त्रक्। न तत्पुनः पश्यति तत्त्ववेत्ता
नन्दात्मनि ब्रह्मणि लीनवृत्तिः॥४१७॥ गौ अपने गलेमें पड़ी हुई मालाके रहने अथवा गिरनेकी ओर जैसे कुछ भी ध्यान नहीं देती, इसी प्रकार प्रारब्धकी डोरीमें पिरोया हुआ यह शरीर रहे अथवा जाय, जिसकी चित्तवृत्ति आनन्दस्वरूप ब्रह्ममें लीन हो गयी है, वह तत्त्ववेत्ता फिर इसकी ओर नहीं देखता।
अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः। किमिच्छन् कस्य वा हेतो पुष्णाति तत्त्ववित्॥४१८॥
अखण्ड आनन्दस्वरूप आत्माको ही अपना स्वरूप जान लेनेपर किस इच्छा अथवा किस कारणसे तत्त्ववेत्ता इस शरीरका पोषण करे?
आत्मज्ञानका फल संसिद्धस्य फलं त्वेतज्जीवन्मुक्तस्य योगिनः। बहिरन्तः सदानन्दरसास्वादनमात्मनि॥ ४१९॥