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श्रमण सूक्त
॥ ८७
जे नियाग ममायति
कीयमुद्देसियाहड। वह ते समणुजाणति
इइ वुत्त महेसिणा।।
तम्हा असणपाणाइ
कीयमुद्देसियाहडं। वज्जयंति ठियप्पाणो निग्गथा धम्मजीविणो।।
(दस ६ ४८, ४६)
जो नित्याग्र, क्रीत, औदेशिक और आहृत आहार ग्रहण करते हैं वे प्राणि-वध का अनुमोदन करते हैं ऐसा महर्षि महावीर ने कहा है। इसलिए धर्मजीवी, स्थितात्मा निर्ग्रन्थ क्रीत, औदेशिक और आहृत अशन, पान आदि का वर्जन करते हैं।
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