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श्रमण सूक्त
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गिहिणो वेयावडिय न कुज्जा अभिवायण वदण पूयण च ।
असकिलिट्टेहि सम वसेज्जा
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मुणी चरितस्स जओ न हाणी ।। (दस चू (२) ६)
साधु गृहस्थ का वैयापृत्य न करे, अभिवादन, वन्दन और पूजन न करे। मुनि सक्लेश-रहित साधुओ के साथ रहे जिससे कि चरित्र की हानि न हो।
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