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श्रमण सूक्त
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धम्माउ भट्ट सिरिओ ववेय
जन्नग्गि विज्झायमिव प्पतेय। हीलति ण दुविहिय कुसीला दादुद्धिय घोरविस व नाग।।
(दस चू (१) १२)
जिसकी दाढे उखाड ली गई हो उस घोर विषधर सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं वैसे ही धर्म-भ्रष्ट, चारित्ररूपी श्री से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि की भांति निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निन्दा करते हैं।
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