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श्रमण सक्त
(SI
_ श्रमण सूक्त
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१६६ ।
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अज्ज आह गणी हुतो
भावियप्पा बहुस्सुओ। जइ ह रमतो परियाए सामण्णे जिणदेसिए।।
(दस चू (१) - ६)
आज मे भावितात्मा ओर बहुश्रुत गणी होता यदि जिनोपदिष्ट श्रमण-पर्याय (चारित्र) मे रमण करता।
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