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श्रमण सूक्त
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जया य थेरओ होइ
समइक्कतजोव्वणो। मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ।।
(दस. चू (१). ६)
यौवन के बीत जाने पर वह उत्प्रव्रजित साधु बूढा होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है जैसे काटे को निगलने वाला मत्स्य।
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