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श्रमण सूक्त
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१२।
तहेव असण पाणग वा
विविह खाइमसाइय लभिता । होही अट्ठो सुए परे वा त न निहे ना निहावर जे स भिक्खू ।।।
(दस १० ८)
पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर यह कल या परसो काम आएगा इस विचार से जो न सन्निधि (सचय) करता है और न कराता है-वह भिक्षु है।
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