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________________ - श्रमण सूक्त १५१. चत्तारि वमे सया कसाए ध्रुवयोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे। अहणसे निज्जायसवरयए गिहिजोग परिवज्जए जे से भिक्खू।। सम्मद्दिट्टी सया.अमूढे अस्थि हु नाणे तवे संजमे य। तवसा धुणइ पुराणपावगं मणक्यकायसुसवुडे जे स भिक्खू ।।। (दस १० . ६. ७) ___जो चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोम) का परित्याग करता है, जो निर्ग्रन्थ प्रवचन मे घुवयोगी है जो अधन है, जो स्वर्ण तथा चाँदी से रहित है.जो गृहीयोग (क्रय-विक्रय आदि) का वर्जन करता है वह भिक्षु है। ___जो सम्यकदर्शी है, जो सदा अमूढ है, जो ज्ञान-तप और सयम के अस्तित्व में आस्थावान् है, जो तप के द्वारा पुराने पापो को प्रकम्पित कर देता है, जो मन, वचन तथा काय से सुसवृत है-वह भिक्षु है। - - ®-११ पपप
SR No.034105
Book TitleShraman Sukt
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2000
Total Pages490
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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