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श्रमण सूक्त
श्रमण सूक्त
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निक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे
निच्च चित्तसमाहिओ हवेज्जा। इत्थीण वस न यावि गच्छे वत नो पडियायई जे स भिक्खू ।।
(दस १० . ५)
जो तीर्थ कर के उपदेश से निष्क्रमण कर (प्रव्रज्या ले) निग्रंथ-प्रवचन मे सदा समाहित-चित्त होता है जो स्त्रियो के अधीन नहीं होता जो वमे हुए को वापिस नहीं पीता (व्यक्त मोगो का पुन सेवन नहीं करता)-वह भिक्षु है।
NIRAMPARA-
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