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श्रमण सूक्त
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गुरुमिह सयय पडियरिय मुणी
जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिय रयमल पुरेकड __ भासुरमउलं गइ गय।।
(दस ६ (३) १५)
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इस लोक मे गुरु की सतत सेवा कर, जिनमत-निपुण (आगम-निपुण) और अभिगम (विनय-प्रतिपत्ति) में कुशल मुनि पहले किए हुए रज और मल को कम्पित कर प्रकाशयुक्त अनुपम गति को प्राप्त होता है।
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