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॥ १४५ )
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जे माणिया सयय माणयति
जत्तेण कन्न व निवेसयति। ते माणए माणरिहे तवस्सी जिइदिए सच्चरए सु पुज्जो।।
(दस ६ (३) १३)
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अभ्युत्थान आदि के द्वारा सम्मानित किए जाने पर जो शिष्यो को सतत सम्मानित करते हैं-श्रुत-ग्रहण के लिए प्रेरित करते हैं, पिता जेसे अपनी कन्या को यत्नपूर्वक योग्य कुल मे स्थापित करता है वैसे ही जो आचार्य अपने शिष्यो को योग्य मार्ग में स्थापित करते है, उन माननीय तपस्वी, जितेन्द्रिय ओर सत्यरत आचार्य का जो सम्मान करता है वह पूज्य है।
Bulumsamund
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