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श्रमण सूक्त
सथारसेज्जासणभत्तपाणे
अप्पिच्छया अइलाभे वि सते। जो एवमप्पाणभितोसएज्जा सतोसपाहन्नरए स पुज्जो।।
(दस ६ (३) ५)
सस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पानी का अधिक लाभ होने पर भी जो अल्पेच्छ होता है, अपने आपको सन्तुष्ट रखता है और जो सन्तोष-प्रधान जीवन मे रत है, वह पूज्य
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