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श्रमण सूक्त
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ते वि त गुरुं पूयति
तस्स सिप्पस्स कारणा। सक्कारेति नमसति
तुट्टा निद्देसवत्तिणो।। किं पुण जे सुयग्गाही
अणतहियकामए। आयरिया जं वए भिक्खू तम्हा तं नाइवत्तए।।
(दस ६ (२) १५, १६)
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जो आगम-ज्ञान को पाने मे तत्पर और अनन्तहित (मोक्ष) का इच्छुक है उसका फिर कहना ही क्या ? इसलिए आचार्य जो कहे भिक्षु उसका उल्लघन न करे
फिर भी वे उस शिल्प के लिए उस गुरु की पूजा करते हैं, सत्कार करते है, नमस्कार करते हैं और सतुष्ट होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।
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