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श्रमण सूक्त
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(१२८
जहाहियग्गी जलण नमसे
नाणाहुईमतपयाभिसित्तं। एवायरिय उवचिट्ठएज्जा अणतनाणोवगओ वि सतो।।
(दस ६ (१) ११)
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जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण विविध आहुति और मन्त्रपदो से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे।
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