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श्रमण सूक्त
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श्रमण सूक्त १२६ ।
जे यावि नाग डहर ति नच्चा
आसायए से अहियाय होइ। एवायरिय पि हु हीलयतो नियच्छई जाइपहं खु मदे।।।
(दस ६ (१) ४)
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जो कोई-यह सर्प छोटा है-ऐसा जानकर उसकी आशातना (कदर्थना) करता है, वह (सप) उसके अहित के लिए होता है। इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी अवहेलना करने वाला मद ससार मे परिभ्रमण करता है।
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