________________
श्रमण सूक्त
(१२५
D
पगईए मंदा वि भवति एगे
डहरा वि य जे सुयबुद्धोववेया। आयारमता गुणसुट्टिअप्पा जे हीलिया सिहिरिव भास कुज्जा ।।
(दस ६ (१) ३)
कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्द (अल्प-प्रज्ञ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत
और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं। आचारवान और गुणों मे सुस्थितात्मा आचार्य, भले ही फिर वे मन्द हो या प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर गुण-राशि को उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि-ईंधन-राशि को।
-
१२५