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श्रमण सूक्त
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अन्नट्ठ पगडं लयणं
भएज्ज सयणासणं। उच्चारभूमिसपन्न इत्थीपसुविवज्जिय।।
(दस ८
५१)
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मुनि दूसरो के लिए बने हुए गृह, शयन और आसन का सेवन करे। वह गृह मल-मूत्र विसर्जन की भूमि से युक्त तथा स्त्री और पशु से रहित हो।
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