________________
In
श्रमण सूक्त
२
-
-
वयं च वित्तिं लव्मामो
न य कोइ उवहम्मई। अहागडेसु रीयति पुप्फेसु भमरा जहा।।
(दस. १:४)
हम इस तरह से वृत्ति-मिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो। क्योंकि श्रमण यथाकृत (सहज रूप से बना) आहार लेते हैं, जैसे-भ्रमर पुष्पो से रस।
Mon
-
soon
-
-