________________
श्रमण सूक्त
१
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रस ।
नय पुप्फ किलामेइ
सो य पीणेइ अप्पय ।।
एमेए समणा मुत्ता
जे लोए सति साहुणो । विहगमा व पुप्फेसु
दाणभत्तेसणे रया ||
( दस १ २.३)
जिस प्रकार भ्रमर- द्रुम-पुष्पो से थोडा-थोडा रस पीता है, किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है--उसी प्रकार लोक मे जो मुक्त (अपरिग्रही) श्रमण साधु हैं वे दान भक्त (दाता द्वारा दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा मे रत रहते हैं, जैसे-भ्रमर पुष्पो मे ।
१