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42/ सर्वोदयी जैन तत्र प्रक्रियाओं-(1) दमन (2) विलयन या बुरी प्रवृत्तियों का क्षय (6) उदात्तीकरण
और मार्गान्तराकरण (क्षयोपशम) के समकक्ष हैं। जैन-तंत्र के उपरोक्त ईसा पूर्व सदियो के निर्देशो का वर्तमान वैज्ञानिक एव मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से यह साम्य वस्तुतः हमे आनदित करता है। फलतः यह स्वाभाविक है कि स्वस्थ शरीर और मनोनियत्रक ध्यान आदि प्रवृत्तियो से हमारे आचरण अधिक नैतिक और शुभतर या पवित्र बने। इससे हमारा आध्यात्मिक या आन्तरिक स्तर अधिक उन्नत होगा और हमारी क्रियाये शुभतर होने लगेगी।
जैन तत्र मे मन को, विचारो को, बड़ा महत्व दिया गया है। इसीलिये उसमे सकल्पी हिसा को अशुभतम माना गया है। मानव के मनोभावात्मक स्तरो के क्रमिक शोघन की दृष्टि से आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को एक चतुर्दशी श्रेणी (गुणस्थान) के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अज्ञान (निथ्यात्व) से पूर्ण ज्ञान (केवल ज्ञान) की ओर, कर्मता से अकर्मता की ओर क्रमश . बढती है। यह श्रेणी सकेत देती है कि मन के नियत्रण के लिये दमन या उपशमन विधि बहुत अच्छी नहीं होती क्योकि कभी कभी यह प्रतिक्रिया उत्पन्न कर मनोभावो को विकृत करती है और उसके आध्यात्मिक विकास पथ को ग्यारहवे स्तर से छठवे स्तर तक ला देती है। इसी प्रकार, यदि नियत्रण उपायो एव साधना की विधियो मे समुचित सावधानी न बरती जावे, तो भी विकास का अवनमन नौवे स्तर से चौथे स्तर तक या सातवे स्तर से चौथे स्तर तक हो जाता है। इस अवनमन को निरस्त करने और सहज विकास पथ पर अग्रसर बने रहने के लिये मानव को बलवत्तर प्रयत्न करने होगे। इसके विपर्यास मे, हम पाते है कि अशुभ मनोभावो के विलयन की विधि नैतिक विकास की अधिक अच्छी विधि है। इसमे व्यक्ति सीधे ही दसवे स्तर से बारहवे स्तर पर और पाचवे से आठवें स्तर पर चला जाता है। इस श्रेणी का चौदहवा स्तर उच्चतम है जहा सभी प्रकार के कषायादिक मनोभाव (शुभ या अशुभ) शून्य हो जाते है, सभी आवेग ओर क्रियाये शात हो जाती है। इस स्तर पर समस्त कर्मों, के आवरण नष्ट हो जाते हैं और मानव को जीवन की उच्चतम नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का जैन लक्ष्य, प्राप्त होता है। इस स्थिति मे वह अनत आनंद का अनुभव करता है। इस स्थिति को तत्र में उच्चतम आध्यात्मिक पद-सिद्ध पद-कहा गया है। इस पद पर आने के साथ जीवन का उच्चतम लक्ष्य मिल चुका होता है। इस प्रकार हम देखते है कि नैतिक क्षेत्र मे भी जेनो ने प्रारंभ से ही वे ही