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जैन तंत्र की वैज्ञानिकता / 41 प्रक्रिया इससे विपरीत होती है। जैनों ने इन जीव क्रियाओं को इस महत्वपूर्ण कारक (अथवा कर्मवाद) से सह-सबंधित किया जो भूतकाल से भी सहचरित रहते है। जीव क्रियाओ की इस विविधता एव तीव्रता ने जैनो को इसे चतुःस्पर्शी और अदृश्य कर्मो के कारण माना है। ये कर्म और अन्य घटक मानव की प्रकृति और उसके राग, द्वेष, क्रोधादि मनोभाव, सुख, दुख आदि से संबंधित व्यवहारो और अनुभूतियो को प्रभावित करते हैं। मन को अत्यत बलशाली व चचल माना जाता है जो इन क्रियाओ का मूल कारण माना जाता है। धर्मतत्र सुखवर्धक शुभ एव पवित्र कार्यों और व्यवहारों का प्रोत्साहक है। इसलिये यह मन को नियत्रित कर उसे शुभतर दिशाओं मे प्रवृत्त करने की विधिया बताता है।
क्रियात्मकता की प्रकृति के प्रेरक मनोबल के अतिरिक्त, जैनो ने यह भी अनुभव किया कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है। मन की स्वस्थता का अर्थ है-उसका नियंत्रित रहना और स्थिर एकदिशी होना। इसलिये उन्होने सर्वप्रथम ऐसी विधिया प्रस्तावित की जो शरीर को स्वस्थता प्रदान करे। इनमें परिवेश एव अन्तर्ग्रहण (भौतिक एवं मनोभावात्मक आहार) के नियंत्रण प्रमुख हैं। वस्तुतः ये दोनो ही शरीर के स्वास्थ्य को प्रभावित करते है। इसके लिये शाकाहार के समान सात्विक भौतिक आहार, हिंसासमाहारी खाद्यो का अनाहार, मादक पदार्थों का अनाहार, सूर्य या उज्ज्वल प्रकाश में आहार, ऊनोदरी, समय-समय पर 24-36 घटों के उपवास आदि विधियां सुझाई गई हैं। जैन तंत्र के अनेक व्रत इनके परिपालन के लिये ही है। आहारशास्त्रियो ने यह तथ्य प्रकट किया है कि आहार की आदते शरीर तत्र के स्रावों को प्रभावित करती हैं और उनसे मनोभावात्मक परिवर्तन व्यक्त होता है। सात्विक आहार और उसके नियत्रण से आतरिक बल, अहिसक वृत्ति एव नैतिक आचरण का सवर्धन होता है।
आहारादि के शारीरिक नियत्रण आशिक स्वस्थता देते है। पर ये ध्यान और तप (साधना)-अभ्यतर और वाह्य-की प्रवृत्ति को प्रेरित करते है और मन की चचलता को दूर करने में सहायक होते हैं। जैन-तंत्रज्ञो ने यह बताया है कि मानसिक स्थिरता/नियंत्रण, मनोभावात्मक/आवेग-सवेगात्मक शुभता या वैचारिक दशा की कोटि विभिन्न प्रकार के कर्मो के (1) उपशम या दमन (2) क्षय (3) क्षय और उपशम (4) उदय के प्रकमों से प्रभावित होती है। ये विधिया मानव के व्यवहार सुधा की चार मनोवैज्ञानिक