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22 / सर्वोदयी जैन तत्र
और पर्यायों (क्रमवर्ती) का आधार हो । यह गतिशील स्थायित्व का प्रतीक है । इस प्रकार, इस भौतिक विश्व मे जीव, अजीव, आकाश, गति-माध्यम, स्थिति माध्यम एव काल-ये छह द्रव्य पाये जाते है।
3. आध्यात्मिक दृष्टि से, सुख का मार्ग 9-11 तत्वों के परिज्ञान तथा अनुभूति के माध्यम से प्रशस्त होता है। इन तत्वो की सख्या उमास्वामी ने बाद मे सात निश्चित की है
(1-2) जीव और अजीव तत्व एक-दूसरे से सयुक्त होकर भौतिक और भावात्मक क्रियाओ के माध्यम से कर्मों के (3) आश्रव तथा (4) बध के माध्यम से जीव के सासारिक अस्तित्व में सहायक होते हैं। इस विश्व में जीव सदैव अजीव (कर्म, शरीर आदि) से प्रदूषित रहता है। लेकिन जीव मे इस प्रदूषण को दूर कर अपने स्वतंत्र अस्तित्व मे आने की तीव्र लालसा रहती है।
मानव जीवन का चरम लक्ष्य, दुख-निवृत्ति, (7) परमसुख या मोक्ष प्राप्त करना है । यह सुख तप एव व्रतो के भौतिक एव मानसिक (5) सवर के प्रकारो तथा (6) बधे हुए कर्मों के निर्झरण या निर्जरा की बहुचरणी प्रक्रिया के अपनाने से प्राप्त होता है। वस्तुतः सुख, H. कर्मबध की शिथिलता के अनुपात में होता है। उच्चतम या अनत सुख तो मानव पुरुषार्थ का अंतिम चरण है जिसे धार्मिकता, R कह सकते है। फलतः
H x R.
(1)
(H = Happiness ), ( R = Rehgiosity)
और, ससार दुख के कारण = आश्रव और बध, और
ससार सुख के कारण सवर और निर्जरा
4. जीवन मे सुख की प्राप्ति उपरोक्त तत्वो और द्रव्यों के तर्कसंगत एव सम्यक् विश्वास पूर्ण ज्ञान एव प्रयोग से होती है। ये (3-4) ही दुखमय ससार के कारण है और इनके (5-6) के अनुसार आचरण इन दुखो को दूर करने के उपाय है। जैन तत्र का यह समन्वित त्रिचरणी ( भक्ति / श्रद्धा, ज्ञान / दर्शन और चारित्र) मार्ग है जो अन्य तत्रो के एकल या द्विकल मार्ग की तुलना मे अपनी विशिष्टता प्रकट करता है।
5. प्राणिजगत मे भौतिक एव भावात्मक इच्छाये, महत्वाकाक्षाये, राग, द्वेष, घृणा, उपलब्धिया आदि की बहुलता है। इन्हें जैन तंत्र मे कषाय, P (Passion) कहते है। ये अच्छी भी हो सकती है बुरी भी हो सकती हैं।