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रमण महर्षि
जाए, वह महाराष्ट्र स्थित गोकणम् गयी परन्तु उसकी मनोव्यथा लेशमात्र भी कम न हुई । कुछ मित्रो ने उसमे तिरुवन्नामलाई के एक तरुणस्वामी की चर्चा की और कहा कि वह शान्ति के इच्छुको को शान्ति प्रदान करते हैं । वह एकदम तिरुवन्नामलाई के लिए चल पडी । नगर मे उसके कुछ सम्वन्धी रहते थे परन्तु वह उनके पास नही गयी क्योकि उनके दशन मे ही, उसे कटु स्मृतियाँ स्मरण हो आती । एक सहेली के साथ वह पहाडी पर चढकर स्वामी के पास गयी । वह विना अपना दुख बताये, उनके सामने मौन होकर खडी हो गयी । कष्ट-कथा वर्णन करने की कोई आवश्यकता भी नही थी । स्वामी की आँखो मे प्रकाशमान करुणा उसके लिए अत्यन्त शान्तिप्रद सिद्ध हुई । पूरा एक घण्टा वह खडी रही, उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला, इसके बाद वह नीचे पहाडी की ओर शहर मे गयी, उसके दुख का भार हलका हो चुका था ।
इसके बाद वह प्रतिदिन स्वामी के दानो के लिए जाने लगी । स्वामी वह सूय थे जिसने उसके शोक की घटाओ को छिन्न-भिन्न कर दिया था । वह विना किसी कडवाहट के अपने स्नेहीजनो को भी स्मरण कर सकती थी । उसने अपना शेष जीवन तिरुवन्नामलाई मे बिताया । उसने वहाँ एक छोटा-सा घर ले लिया । उसके पिता कुछ पैसा छोड गये थे और उनके भाइयो ने भी उसकी सहायता की और वहाँ आने वाले अनेक भक्तजन उसके आतिथ्य का लाभ उठाने लगे । वह प्रतिदिन भगवान् के लिए भोजन तैयार करती थी जिसका अर्थ था वह सारे आश्रम के लिए भोजन तैयार करती थी, क्योकि भगवान् कोई भी ऐसी वस्तु स्वीकार न करते जो सव मे वरावर न वाँटी जाती । जव तक वह बूढी नही हो गयी और उसका स्वास्थ्य खराव नही हो गया वह स्वय भोजन लेकर पहाडी की ओर जाती और जब तक सव आश्रमवासियो को न परोस देती तब तक स्वयं न खाती । आश्रमवासियो की संख्या के वढने के साथ सामान्य भोजन मे उसका योगदान बहुत छोटा हो गया । परन्तु जब कभी उसे देर हो जाती श्रीभगवान् उसके आने तक प्रतीक्षा करते ताकि वह निराश न हो ।
इतने महान् दुख मे से गुजरने और शान्ति लाभ करने के बाद, नया सम्वन्ध बनाने के लिए उसमे वात्सल्य की धारा अभी विद्यमान थी । उसने भगवान् की अनुमति लेकर ही एक कन्या को गोद ले लिया । समय आने पर उसने उसके विवाह का प्रवन्ध किया और पौत्र के जन्म पर, जिसका नाम उसने रमण रखा था, बहुत खुशियाँ मनायी । और एक दिन, जवकि वह स्वप्न मे भी नही सोच सकती थी, उसे तार मिला कि उसकी गोद ली हुई लडकी का देहान्त हो गया है । पुराना दुःख फिर हग हो उठा। वह तार लेकर भागी भागी पहाडी की ओर श्रीभगवान् के चरणो मे गयी । उन्होंने आँखो मे