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अचल शव है, जिसमे से भागवत प्रकाश वडे वेग से बाहर प्रकाशित हो रहा है । मैं अपने भावो की भी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती ।" १
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एक अन्य विदेशी पाल ग्रण्टन ने, जिनकी वृत्ति आस्तिकता की अपेक्षा सन्देह की अधिक थी, अपने मन पर पडने वाले श्रीभगवान् के मौन के प्रथम प्रभाव का इस प्रकार वणन किया है।
" मेरा इस प्राचीन सिद्धान्त मे अटल विश्वास है कि मनुष्य की आँखें उसकी आत्मा का दर्पण है । परन्तु महपि की आंखो के आगे में अपने को सकुचित और अभिभूत अनुभव करता हूँ ।"
"मैं उन पर से अपनी दृष्टि नही हटा सकता । मेरी प्रारम्भिक व्यग्रता और उलझन जो उनकी उपेक्षा के कारण उत्पन्न हो गयी थी उनके विचित्र आकषण के कारण जिसने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया धीरे-धीरे जाती रही । परन्तु इस असाधारण दृश्य के दो घण्टे बाद ही मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मेरे मन मे एक मूक और शान्त परिवर्तन हो रहा है। एक-एक करके वे सारे प्रश्न जिन्हें मैंने ट्रेन मे इतनी सतक यथार्थता के साथ तैयार किये थे, लुप्त हो गये । अब इन प्रश्नो का पूछना या न पूछना मुझे बिलकुल महत्त्वहीन लगने लगा और जो समस्याएँ मुझे अब तक परेशान करती आयी थी उनका सुलझाना या न सुलझाना महत्त्वहीन था । मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि मेरे निकट शान्ति की धारा निर्वाध रूप से प्रवाहित हो रही थी, एक महान् शान्ति मेरे अन्तस्थल मे प्रवेश कर रही थी और मेरा विचारमस्त मस्तिष्क शान्त हो रहा था ।"
न केवल वौद्धिक व्यक्तियो के अशान्त मन को वल्कि शोकातुर हृदयो को श्रीभगवान् की अनुकम्पा से शान्ति का वरदान प्राप्त होता था । मण्डा कोलायर गाँव की रहने वाली अचम्माल, जिस नाम से वह आश्रम में विख्यात थी ( उसका पहला नाम लक्ष्मीमम्माल था ) सुखी पत्नी और माँ थी, परन्तु पच्चीम aप की होने से पूर्व, पहले उसके पतिदेव स्वग सिधार गये, फिर उसका एकमात्र पुत्र और फिर उसकी एकमात्र पुत्री का स्वर्गवास हो गया। प्रियजनो के इस वियोग से उसका हृदय सतप्त हो उठा, उनकी स्मृति से उसकी छाती फटी जाती थी, उसे कही शान्ति प्राप्त नहीं होती थी। जिस स्थान में उसने सुखसमृद्धि के दिन देखे थे, जिन लोगो के बीच वह इतनी प्रसन्न थी, वे सब उसे काटने लगे । यह सोचकर कि शायद साधु-सन्तों की सेवा से उसका कष्ट दूर हो
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अरुणाचल
एफ० एच० हम्फ्रीज द्वारा लन्दन में एक मित्र को लिखे गये पत्र से और उसके द्वारा लवन के इण्टरनेशनल साइकिक गजट में प्रकाशित ।