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रमण महर्पि
वहां आया करते थे और काम पर जाने से पहले स्वामी की उपस्थिति मे कुछ देर तक ध्यानावस्थित होकर बैठा करते थे। मौन की प्रतिज्ञा का सभी सम्मान करते हैं और स्वामी के न बोलने के कारण लोग यह समझते थे कि स्वामी ने मौन व्रत धारण कर रखा है। परन्तु जो व्यक्ति प्राय नहीं बोलता वह लिखकर बात करता है । अब जब वेंकटराम ऐय्यर को इस बात का पता चल गया कि स्वामी लिख सकते हैं तो उन्होने उनका जन्म-स्थान और नाम जानने का सकल्प कर लिया। उन्होंने उनके सामने पलानीस्वामी द्वारा लायी गयी पुस्तक पर कामज-पेन्सिल लाकर रखा और स्वामी से अपना नाम तथा जन्म-स्थान लिखने की प्राथना की।
स्वामी ने वेंकटराम की प्रार्थना का तब तक कोई प्रत्युत्तर नही दिया जव तक उन्होने यह घोषणा नही कर दी कि वाछित सूचना प्राप्त किये विना न तो वह खाना खाएँगे और न दफ्तर जाएंगे। तव स्वामी ने अंग्रेजी मे लिखा, 'वेंकटरमण, तिरुचुजही' । स्वामी के अंग्रेजी जानने से लोगो को और आश्चय हुआ परन्तु वेंकटराम 'तिरुचुजही' शब्द से अचम्भे मे पड गये ।
स्वामी ने उस पुस्तक को जिस पर कागज रखा हुआ था, यह जानने के लिए उठाया कि क्या यह तमिल मे है। यह पुस्तक पेरियापुराणम् थी, जिसका उन पर आध्यात्मिक जागरण से पहले बहुत प्रभाव पडा था । उहोने पुस्तक मे वह स्थल ढूंढा, जहां तिरुचुजही का एक नगर के रूप मे वणन किया गया है और सुन्दरमूत्तिस्वामी ने इसकी प्रशस्ति मे गीत गाया है। स्वामी ने यह स्थल वेंकटराम ऐय्यर को दिखाया ।
मई १८६८ मे, स्वामी को गुरुमूत्तम मे रहते हुए एक साल से ऊपर हो चुका था, वह पास के एक आम के बगीचे में निवास के लिए चले गये । इसके मालिक वेंकटराम नायकर ने पलानीस्वामी के आगे स्थान-परिवतन का यह सुझाव रखा था क्योकि बगीचे मे ताला लगाया जा सकता था और स्वामी एकान्तवास का लाभ उठा सकते थे। स्वामी और पलानीस्वामी ने चौकीदार की कुटिया मे अपना डेरा जमाया। बगीचे के स्वामी ने माली को यह आदेश दे दिया कि पलानीस्वामी की आज्ञा के विना किसी को वगीचे मे प्रवेश करने की अनुमति न दी जाए।
स्वामी यहां छह महीने रहे और यही उन्होने अगाध ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान लाभ की किसी इच्छा के कारण ऐसा नहीं हुआ, अपितु यह ज्ञानाजन एक भक्त की सहायता करने की शुद्ध इच्छा के कारण हुआ। पलानीस्वामी आध्यात्मिक दशन के ग्रन्थ अध्ययन करने के लिए लाया करते थे, परन्त जिन ग्रन्थो तक उनकी पहुँच थी, वे तमिल मे थे, जिसका उन्हे बहुत कम ज्ञान था और इसलिए उन्हे उन ग्रन्थो को समझने के लिए घोर श्रम करना पड़ता था।