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रमण महर्षि
लगभग दो मास तक ब्राह्मणस्वामी सुब्रह्मण्यम् देवालय मे ठहरे। वह निश्चल अवस्था मे समाधिस्थ होकर बैठ जाते और कई वार भोजन भी उनके मुख मे डालना पडता क्योकि उन्हे तो भोजन की जरा भी चिन्ता नही थी। कई सप्ताह तक तो उन्होने लंगोटी बांधने की चिन्ता भी नही की। देवालय मे एक मौनीस्वामी रहा करते थे। वही उनकी देखभाल किया करते थे।
मन्दिर मे उमा की प्रतिमा को प्रतिदिन दूध, पानी, हल्दी, खांड, केले तथा अन्य पदार्थों के मिश्रण से स्नान कराया जाता था और मौनीस्वामी इस विचित्र मिश्रण का गिलास भरकर प्रतिदिन छोटे स्वामी के लिए ले जाते थे । वह इस मिश्रण की गन्ध और स्वाद की चिन्ता किये विना इसे निगल जाते थे, केवल यही उनकी खुराक थी। कुछ समय बाद मन्दिर के पुजारी ने इसे देख लिया और उसने ब्राह्मणस्वामी के लिए मौनीस्वामी को प्रतिदिन शुद्ध दूध देने की व्यवस्था कर दी।
कुछ सप्ताह बाद ब्राह्मणस्वामी देवालय के उद्यान मे चले गये, जो लम्बीलम्बी करवीर की झाडियो से भरा हुआ था, कई झाडियां तो दस-बारह फुट ऊंची थी। यहाँ भी वे परमानन्द मे लीन हो वैठे रहते थे। परमानन्द की इस अवस्था मे वह चलने भी लगते थे क्योकि जब उन्हें होश आता, वह अपने को किसी और ही झाडी के नीचे पाते, उन्हे यह विलकुल स्मरण ही नहीं रहता था कि वह वहां किस प्रकार पहुँच गये । इसके बाद वह मन्दिर की गाडियो वाले महाकक्ष मे रहने लगे । इन गाडियो पर धार्मिक समारोहो के अवसर पर देवप्रतिमाओ का जुलूस निकाला जाता था। यहां भी जब कभी उन्हे होश आता, वह अपने को भिन्न स्थान पर पाते और यह देखते कि मार्ग की विभिन्न बाधाओ को उन्होंने विना अपने शरीर को क्षति पहुँचाये, अनजाने ही पार कर लिया है। ___इसके बाद वह कुछ समय के लिए सड़क के किनारे स्थित एक वृक्ष के नीचे बैठे। यह सडक मन्दिर की बाहरी दीवार के अन्दर इसके अहाते के चारो
ओर है और मन्दिर के जुलूसो के लिए इसका उपयोग किया जाता है। वह कुछ समय के लिए यहाँ और मगाई पिल्लामार देवालय मे ठहरे । प्रतिवर्ष सहस्रो तीथयात्री नवम्बर या दिसम्बर मे पडने वाले कात्तिकेय के समारोह मे भाग लेते हैं । इस अवसर पर जैसा कि छठे अध्याय मे बताया गया है, शिव के प्रकाश-स्तम्भ के रूप मे आविर्भाव की स्मृति-स्वरूप अरुणाचल के शिखर पर प्रकाश किया जाता है। इस वर्ष वहुत से तीर्थयात्री तरुणस्वामी के दशनो या उनके सम्मुख साष्टाग प्रणाम करने के लिए आये । इसी अवसर पर उनके एक सर्वप्रथम भक्त नियमित रूप से उनकी सेवा मे रहने लगे। उद्दण्डी नयीनार ने आध्यात्मिक ग्रन्यो का अध्ययन किया था परन्तु उन्हे इससे आध्यात्मिक शान्ति नहीं मिली थी। तरुणस्वामी को निरन्तर समाघि मे लीन और अपने शरीर