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तपस्या के प्रति सवथा उदासीन देखकर उन्होने अनुभव किया कि तरुणस्वामी ने साक्षात्कार कर लिया है और उन्ही के द्वारा उन्ह शान्ति मिलेगी। स्वामी की सेवा से उन्हे प्रसन्नता होती थी, परन्तु वह उनके लिए कुछ अधिक सेवा-कार्य नहीं कर पाते थे। वह दशकों को उनके निकट नहीं आने देते थे और लडको को स्वामी पर अत्याचार नहीं करने देते थे। उनका अधिकाश समय अद्वैत के परम सिद्धान्त के प्रतिपादक तमिल-ग्रन्यो के उच्च स्वर से अध्ययन में व्यतीत होता था। वह स्वामीजी से आध्यात्मिक उपदेश ग्रहण करने के लिए अत्यन्त लालायित थे, परन्तु स्वामीजी उनके साथ कभी नही वोले और वह स्वय पहले बोलकर स्वामीजी का मौन भग नहीं करना चाहते थे। ___ इस समय के लगभग, अन्नामलाई ताम्वीराम नामक एक व्यक्ति उस वृक्ष के पास से गुजरे जहाँ तरुणस्वामी बैठे हुए थे। वह मौनभाव से निश्चित बैठे हुए स्वामी के दिव्य सौन्दय से इतने अधिक प्रभावित हुए कि एकाएक उनका मस्तक नत हो गया और इसके बाद वह प्रतिदिन उनके चरणो मे नमस्कार करने के लिए जाने लगे। वह एक साघु थे जो अपने साथियो के साथ भक्तिगीत गाते हुए नगर मे से गुजरा करते थे। जो कुछ उन्हें दान में खाने को मिलता, वह उसे गरीबो मे वांट देते और नगर के वाहर स्थित अपने आधीन गुरु (गुरुओ के वश के आदि प्रवत्तक) की समाधि पर जाकर पूजा किया करते।
कुछ समय बाद उनके मन मे विचार आया कि गुरुमूत्तम् पर जैसा कि उस देवालय का नाम विख्यात था, तरुणस्वामी की साधना मे कम वाघा पडेगी और शीत ऋतु के कारण उन्हें यहाँ अच्छा आश्रय मिलेगा। उन्हे यह मुझाव देने मे पहले कुछ सकोच हुआ। इसलिए उन्होने पहले इस विपय में नयीनार के साथ बात की क्योकि उनमे से किसी ने भी कभी स्वामी के साथ वात नहीं की थी । अन्त मे उसने सुझाव देने के लिए साहस बटोरा । स्वामी मान गये और फरवरी १८६७ में, तिरुवन्नामलाई में उनके आगमन को अभी ६ महीने भी नहीं हुए थे कि वह अन्नामलाई ताम्बीराम के साथ गुरुमूत्तम् पर चले गये। ___ वहां पहुंचने के बाद उनकी जीवन-पद्धति मे कोई परिवर्तन नही हुआ। देवालय का फश चीटिमो से भरा हुआ था, परन्तु स्वामी ने अपने शरीर पर चीटियो के रेंगने और काटने की तनिक भी चिन्ता नहीं की। कुछ समय बाद एक कोने मे उनके बैठने के लिए स्टूल रख दिया गया और चीटियो से दूर रखने के लिए इसके पाये पानी में हुवा दिये गये। स्वामी दीवार का सहारा लेकर बैठते थे इसलिए चीटियों उनके शरीर पर पुन चढ़ आती थी। वहीं निरन्तर वैठने से, दीवार पर उनकी पीठ का स्थायी निशान बन गया ।