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पतंजलि का योग-सत्र कोई दार्शनिक व्यवस्था नहीं है। यह अनुभवात्मक है। यह एक उपकरण है,
जिससे कुछ किया जाना है। लेकिन फिर भी इसमें एक दर्शन समाहित है। यह भी तुम्हें इस बात की बौद्धिक समझ देने के लिए कि तुम कहा जा रहे हो, क्या खोज रहे हो। यह दर्शन प्रयोग करने जैसा है, उपयोगी है, इससे उस क्षेत्र का जिसकी सीमाओं का तम अन्वेषण करने जा रहे हो संपूर्ण चित्र खिंच जाता है। लेकिन इस दर्शन को समझना पड़ेगा।
पतंजलि के दर्शन के बारे में पहली बात, मनुष्य के व्यक्तित्व को वे पांच बीजों, पांच शरीरों में बांटते हैं। उनका कहना है कि तुम्हारे पास सिर्फ एक शरीर ही नहीं है; तुम्हारे पास पर्त दर पर्त देहें हैं; वे पांच हैं। पहले शरीर को वे 'अन्नमय कोष', भोजन-काया, पार्थिव देह कहते हैं। जो पृथ्वी से बनी है और लगातार भोजन द्वारा पोषित होती रहती है। भोजन पृथ्वी से मिलता है। यदि तुम भोजन करना छोड़ दो तो तुम्हारा अन्नमय कोष क्षीण होने लगेगा। अत: व्यक्ति को इस बात के प्रति बहुत सजग रहना पड़ता है कि वह क्या खा रहा है, क्योंकि उसका निर्माण इसी से हो रहा है, और यह उसे लाखों ढंग से प्रभावित करता है, क्योंकि देर-अबेर तुम्हारा भोजन मात्र खाद्य सामग्री ही नहीं रहता, यह तुम्हारा रक्त, तुम्हारी अस्थियां, तुम्हारी मांस-मज्जा बन जाता है। यह तुम्हारे अस्तित्व में प्रवाहित होकर तुम्हें प्रभावित करता है। अत: भोजन की शुद्धता एक परिशुद्ध अन्नमय कोष, एक शुद्ध भोजन-काया निर्मित करती है।
और अगर पहला शरीर शुद्ध है, हलका है, निर्भार है, तो ही दूसरे शरीर में प्रवेश करना सुगम हो जाता है। अन्यथा यह कठिन होगा, तुम बोझिल होते हो। क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया है कि
रो भोजन किया हो, तो तुरंत ही तम्हें एक आलस्य की अनुभूति, एक नींद सी महसूस होने लगती है। तुम्हारा मन सो जाने की मांग करने लगता है, तुरंत ही जागरूकता खोने लगती है। जब पहला शरीर बोझिल हो तो तीक्ष्ण बोध का जागना कठिन हो जाता है। अत: सभी धर्मों में अनाहार इतना महत्वपूर्ण हो गया है। लेकिन अनाहार का विज्ञान है और इसे मूढतापूर्वक नहीं अपनाया जाना चाहिए।
अभी उस रात को ही एक संन्यासिनी मुझसे कह रही थीं कि वह उपवास करती रही है और उसका सारा शरीर, समग्र अस्तित्व, अस्तव्यस्त, पूर्णत: अव्यवस्थित हो गया है। अब उसका पेट ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रहा है। और जब आमाशय ठीक से कार्य न कर पा रहा हो तो सारा शरीर कमजोर हो जाता है। जीवंतता क्षीण होने लगती है और तुम जिंदा नहीं रह पाते। तुम धीरे-धीरे असंवेदनशील और अंततः मृत हो जाते हो।
लेकिन अनाहार महत्वपूर्ण है। जब कोई अन्नमय कोष की क्रिया विधि को समझ चुका हो, तो ही इसको अत्यधिक सावधानी पूर्वक अपनाया जाना चाहिए। इसको किसी ऐसे व्यक्ति के दिशा निर्देशन