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एकसमये चोभयानवधारणम्।। 20//
मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है।
चितान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धरतिप्रसङ्ग: स्मृतिसंकरश्च।। 21।।
यदि यह मान लिया जाए कि दूसरा मन पहले मन को प्रकाशित करता है, तो बोध के बोध की कल्पना करनी पड़ेगी, और इससे स्मतियों का संशय उत्पन्न होगा।
चितेखतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तो स्वबुद्धिसंवेदनम्।। 22।।
आत्म-बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।
द्रष्ट्रदृश्योपरक्तं चितं सर्वार्थम।। 23 //
जब मन ज्ञाता और ज्ञेय के रग में रंग जाता है, तब यह सर्वज्ञ हो जाता है।
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्।। 24//
यद्यपि मन असंख्य वासनाओं के रंग में रंगता है, फिर भी मन लगातार उनकी पूर्ति हेतु कार्य करता है, इसके लिए यह सहयोग से कार्य करता है।
पहला सूत्र--
मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभ, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।'
पतंजलि मनुष्य के अस्तित्व की सारी जटिलता को खयाल में रखते हैं, इसको समझ लेना चाहिए। न कभी उनसे पहले और न कभी उनके बाद ऐसा व्यापक निर्देश-तंत्र विकसित किया गया। मनुष्य कोई सरल अस्तित्व नहीं है। मनुष्य एक अत्यंत जटिल संरचना है। एक चट्टान सरल है, क्योंकि चट्टान के पास केवल एक परत है-देह की परत। यही है जिसको पतंजलि अन्नमय कोष : सर्वाधिक स्थूल,