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________________ व्यक्ति थे, और उनका प्रेम मात्र दर्शनशास्त्र नहीं था, यह एक वास्तविकता था। जब प्रेम वास्तविकता होता है तो कभी-कभी प्रेम क्रोध भी बन जाता है। वे उतने ही मनुष्य थे जितने कि तुम हो ही, वे वहीं समाप्त नहीं हो गए। वे एक मनुष्य से कुछ और अधिक भी थे, लेकिन प्राथमिक और आधारभूत रूप से वे मनुष्य, मनुष्य से अधिक थे। ईसाई लोग यह सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं कि वे अति मानव थे और उनकी मानवता मात्र एक आकस्मिक घटना थी, एक अनिवार्य बुराई थी, क्योंकि उनको शरीर धारण करना पड़ा था। यही कारण था कि वे क्रोधित हुए थे। अन्यथा वे तो मात्र एक शुद्धता थे लेकिन मेरे अनुसार ऐसी शुद्धता मुर्दा होगी। यदि शुद्धता वास्तविक और प्रमाणिक है, तो यह अशुद्धता से भय नहीं खाती है। यदि प्रेम सच्चा हो तो यह क्रोध से भयभीत नहीं होता; यदि प्रेम असली हो, इसे लड़ने-झगड़ने से जरा भी भय नहीं होता। इससे यह प्रदर्शित होता है कि लड़ाई-झगड़ा भी इसे नष्ट नहीं कर सकता, यह जीवित रहेगा। ऐसे भी संत हुए हैं जिन्होंने मानवता को प्रेम करने की बातें की हैं, लेकिन वे एक मनुष्य तक को प्रेम न कर सके। मानवता को प्रेम करना बहुत सरल है। इस बात को सदैव स्मरण रखो, यदि तुम प्रेम नहीं कर सकते हो तो तुम मानवता को प्रेम करने लगते हो। यह बहुत सरल है, क्योंकि मानवता से तुम्हारी कभी भेंट तक नहीं होती; और मानवता तुम्हारे लिय कोई झंझट भी नहीं खड़ी करने वाली है। केवल एक ही मनुष्य बहुत सी और भी बहुत सी झंझटें खड़ी कर देगा। और तुम्हें बहुत ही अच्छा लग सकता है कि तुम मानवता को प्रेम करते हो। तुम किसी व्यक्ति को कैसे प्रेम कर सकते है? तुम तो मानवता को प्रेम करते हो। तुम तो विराट हो, तुम्हारा प्रेम महान है। लेकिन मैं तुमसे कहूंगा: किसी मनुष्य से प्रेम करो; मानवता को प्रेम करने के लिए यही आधारभूत तैयारी है। यह कठिन होने वाला है, और यह एक बड़ी झंझट, एक लगातार चलने वाली झंझट और चुनौती होने जा रहा है। यदि तुम इसके पार जा सको, और तुम कठिनाइयों के कारण प्रेम को नष्ट न करो, और तुम अपने प्रेम को सशक्त बनाते चले जाओ, जिससे कि यह सभी संभव असंभव कठिनाइयों का सामना कर सके तभी तुम समग्र हो पाओगे। क्राइस्ट ने मनुष्य को प्रेम किया था, और बहुत अधिक प्रेम किया था, और उनका प्रेम इतना विराट था कि यह मनुष्यों का अतिक्रमण कर गया और समूची मानवता के प्रति प्रेम बन गया। फिर इस प्रेम ने मानवता का भी अतिक्रमण कर लिया, यह अस्तित्व के प्रति प्रेम बन गया। यह प्रभु के प्रति प्रेम है। 'आपके उपाय मुझको अलग प्रतीत होते हैं।' मेरे उपाय न केवल अलग हैं, बल्कि नितांत विपरीत हैं। पहली बात तो यह है कि यह उपाय तो जरा भी नहीं है। यह कोई पथ नहीं है; या यदि तुमको पथ शब्द से लगाव है तो इसे पथ - विहीन - पथ, द्वार- विहीन- द्वार कह सकते हो किंतु यह पथ नहीं है, क्योंकि किसी पथ या रास्ते की आवश्यकता तभी पड़ती है जब तुम्हारी वास्तविकता तुमसे बहुत अधिक दूर हो। तब इससे रास्ते के
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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