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वे तुम्हारे अस्तित्व को चार पर्तों में बांटते हैं। मैं जो तुमसे बोल रहा हूं यह अंतिम पर्त है। योग इसको वैखरी कहता है, इस शब्द का अर्थ है : फलित, पुष्पित हो जाना। लेकिन इसके पूर्व कि मैं तुमसे बोलूं इसके पूर्व कि मैं किसी बात का उच्चारण करूं, यह मेरे लिए एक अनुभूति का आकार, एक अनुभव का रूप ग्रहण कर लेती है, यह तीसरी पर्त है। योग इसे मध्यमा, बीच की कहता है। लेकिन इसके पूर्व कि भीतर कुछ अनुभव हो यह बीज-रूप गतिशील होता है। सामान्यत: तुम इसका अनुभव नहीं कर सकते हो जब तक कि तुम बहुत ध्यानपूर्ण न हो, जब तक कि तुम पूरी तरह से इतने शांत न हो चुके हो कि ऐसे बीज में जो अंकुरित भी न हुआ हो, में होने वाले प्रकंपन को भी अनुभव कर सको,जो बहुत सूक्ष्म है। योग इसे पश्यंती कहता है, पश्यंती का अर्थ है. पीछे लौट कर देखना, स्रोत की ओर देखना। और इसके परे तुम्हारा आधारभूत अस्तित्व है जिससे सब कुछ निकलता है, यह 'परा' कहलाता है। परा का अर्थ है : जो सबसे परे है।
अब इन चार पर्तों को समझने का प्रयास करो। परा सभी रूपों से परे कुछ है। पश्यंती बीज के समान है। मध्यमा वृक्ष जैसी है। वैखरी फलित हो जाने, पुष्पित हो जाने जैसी है।
मैं पुन: छान्दोग्य उपनिषद से एक कथा तुम्हें सुनाता हूं :
उस वटवृक्ष से मेरे लिए एक फल तोड़ कर तो लाना, महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा।
यह लीजिए पिताश्री, श्वेतकेत् ने कहा।
इसे तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषिवर।
इसके तुम्हें भीतर क्या दिखाई दे रहा है?
इसके बीज, असंख्य हैं ये तो।
उनमें से एक को तोड़ो।
यह टूट गया, ऋषिवर।
तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है?
कुछ नहीं, ऋषिवर, बिलकुल कुछ भी नहीं।
पिता ने कहा. वत्स, वह सूक्ष्म सार जिसको तुम वहां नहीं देख पा रहे हो, उसी सार-तत्व से यह वटवृक्ष अस्तित्व में आता है। विश्वास करो वत्स कि यह सार-तत्व है, जिसमें सारी चीजों का अस्तित्व है। यही सत्य है। यही स्व है। और श्वेतकेतु वही तुम हो-तत्वमसि श्वेतकेतु!