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अद्वैतवादियों का है, जहां पर कहीं कोई विभेद नहीं, जहां चीजें एक-दूसरे के विपरीत विभाजित नहीं होती हैं।
वह वृद्ध व्यक्ति शायद उस दिन शराब पीए होगा। अन्यथा, जब तुम होश में होते हो तो ऐसी बातें नहीं कह सकते। उसने सब तरह से कोशिश की कि किसी तरह से भी याद आ जाए, जो कि शराब के प्रभाव से धुंधली पड़ गई थी। उसने मार्ग को याद करने की बहुत कोशिश की, लेकिन फिर-फिर वह भूल जाता था। अंततः उसने कहा कि ऐसा संभव ही नहीं है, 'मुझे अफसोस है, तुम यहां से वहा नहीं पहुंच सकते हो।
कथा की इस तरह की निष्पत्ति झेन गुरुओं को बहुत प्यारी लगेगी। वे इसमें छिपे अर्थ को समझते हैं, क्योंकि वे भी शराब पीए हुए हैं –परमात्मा की शराब। तब फिर वही होता है सभी तरह की कोटियां खो जाती हैं, सभी भेद मिट जाते हैं। लाओत्सु कहता है, 'मुझे छोड़कर हर कोई बुद्धिमान है, केवल मैं ही भ्रमित हूं।' लाओत्सु और भ्रमित? लाओत्सु कहता है, 'सभी को सभी कुछ मालूम है, केवल मैं ही कुछ नहीं जानता हूं। हर कोई बुद्धिमान है, केवल मैं ही अज्ञानी हूं।' 'लाओत्सु' शब्द का अर्थ ही होता है 'अनुभवी साथी', या 'अनुभवी अज्ञानी'। शायद लाओत्सु के शत्रु उसे लाओत्सु कहकर इसीलिए बुलाते होंगे कि इसका अर्थ अनुभवी अज्ञानी होता है, और उसके मित्र उसे लाओत्सु इसलिए कहते होंगे कि इसका अर्थ होता है अनुभवी साथी लेकिन वह दोनों ही था।
स्मरण रहे, कि कहीं जाने को कोई जगह नहीं है। जहां कहीं भी रहो 'अभी' और 'यहीं में होते हो। जहां कहीं भी जाते हो हमेशा 'यहीं' का अस्तित्व होता है, जहां कहीं भी जाते हो ' अभी' का अस्तित्व रहता है।'यहीं' और 'अभी' शाश्वत हैं, और वे दो नहीं. हैं। भाषा की दृष्टि से हम उन्हें दो रूप में देखने और कहने के अभ्यस्त हो गए हैं, क्योंकि भाषा के जगत में आइंस्टीन अभी आए नहीं हैं। आइंस्टीन ने अब इसे एक वैज्ञानिक तथ्य की भांति प्रमाणित कर दिया है कि स्थान और समय दो चीजें नहीं हैं। इसके लिए उसने एक नए ही शब्द, 'स्पेसिओ -टाइम' को गढ़ा है। अगर आइंस्टीन की बात सही है तो 'यहां' और 'अब' दो नहीं हो सकते हैं। यहीं- अभी' भविष्य का शब्द है। भविष्य में कभी जब आइंस्टीन की बात बोलचाल की भाषा में आ जाएगी, तो ' अभी' और 'यह' जो दो शब्द हैं, अपना भेद खो देंगे। तब शब्द होगा 'यहीं-अभी'।
यह कथा सुंदर है। कई बार छोटी -छोटी कथाओं में, लोक कथाओं में बहुत गढ़ अर्थ छिपे होते हैं। इन कथाओं को लेकर केवल हंसना मत। कई बार हंसने से हम ऐसी चीज से वंचित रह जाते हैं, ऐसी चीज को खो देते हैं, जो जीवन में बेचैनी पैदा कर सकती है, जो पूरे जीवन में खलबली मचा देती है। इन कथाओं को लिखा नहीं जाता है; ये वृक्षों की भांति अपने - आप विकसित होती हैं। सदियों - सदियों तक, हजारों मन -मस्तिष्क उन पर काम करते हैं। ये कथाएं हमेशा समय के अनुसार बदलती रहती हैं, और समय-समय पर परिष्कृत होती रहती हैं। लेकिन ये कथाएं मनुष्य-जाति की परंपरा का हिस्सा हैं। जब भी कभी कोई हास-परिहास की बात सुनाए तो सिर्फ हंसकर उसे भुला मत