________________ और तब तुम जान लेते हो कि तुम कहां से आए हो, तुम कौन हो। तब तुम जीवन के, अस्तित्व के मूल स्रोत का साक्षात्कार करते हो। तब तुम आमने-सामने होते हो उस स्रोत के, उस मौलिक स्रोत के। वह स्रोत है परमात्मा. वही है आदि और वही है अनादि-वही है अल्फा और वही है ओमेगा। आज इतना ही। प्रवचन 52 - कर्तव्य नहीं—प्रेम प्रश्न-सार: 1-सत्संग-सदगुरु की उपस्थिति में होना अत्यंत महत्वपूर्ण है, तो यदि संभव हो तो क्या आप विश्व भर के अपने सन्यासियों को साथ ही रखना पसंद करेंगे? 2-आप विवाह के पक्ष में नहीं है, फिर भी आप अनेक लोगों को विवाह का सुझाव क्यों देते हैं? 3-आश्रम में आपके निकट मैं शांत और सुखी हो जाता हूं, लेकिन बाहर निकलते ही सड़क पर बैठे भिखारियों को देख कर दुःखी हो जाता हूं, इस दुख के लिए मैं क्या करूं? 4-एक साथ आप इतने अधिक शिष्यों पर कैसे काम कर पाते है? 5-अगर मैंने आपसे संन्यास न लिया होता तो मैंने आपको छोड़ दिया होता। बहरहाल, मैं आप में श्रद्धा नहीं खोना चाहता। अगर आप मुझे आपने चरणों में बांधे रख सकें तो मुझे लगेगा कि आपने गुरु के रूप में अपना कर्तव्य पूरा किया।