________________ हम कुछ सीखते हैं और फिर हम उसमें आबद्ध हो जाते हैं। फिर वही हम देखने लगते है। तुमने कुछ सीखा है, और तुमने बहुत से जीवन बरबाद किये है उन्हें सीखने में। अब यह गहराई में बद्धमूल है, अंकित हो चुका। यह तुम्हारे मस्तिष्क की कोशिकाओं का हिस्सा बन चुका है। लेकिन जब तुम भीतर मुड़ते हो तो वहां केवल अंधकार होता है, और कुछ नहीं। तुम वहां कुछ नहीं देख सकते। वह सारा जगत जिसे तुम जानते हो, अदृश्य हो जाता है। यह ऐसे है, जैसे कि तुम कोई एक भाषा जानते हो और अचानक तुम एक देश में भेज दिये गये हो जहां कोई तुम्हारी भाषा नहीं समझता और तुम किसी और को नहीं समझते। लोग बोल रहे है और बड़-बड़ कर रहे हैं, और तुम अनुभव करते हो कि वे निरे पागल हैं। ऐसा लगता है जैसे कि अनाप-शनाप बोल रहे हों। और यह बहुत शोर से भरा हुआ लगता है क्योंकि तुम कुछ समझ नहीं सकते। वे बहुत जोर से बातें करते जान पड़ते है। लेकिन यदि तुम इसे समझ सको, तो सारी बात बदल जाती है। तुम इसके हिस्से बन जाते हो। तब यह अनाप-शनाप नहीं रहती। यह अर्थपूर्ण हो जाती है। जब तुम भीतर प्रवेश करते हो, तब तुम केवल बाहर की भाषा जानते हो, इसलिए भीतर अंधकार होता है। तुम्हारी आंखें देख नहीं सकतीं, तुम्हारे कान सुन नहीं सकते, तुम्हारे हाथ अनुभव नहीं कर सकते। किसी की जरूरत होती है, कोई जो तुम्हें दीक्षा दे, तुम्हारे हाथ अपने हाथ में ले ले और तुम्हें आगे बढाये इस अज्ञात पथ पर जब तक कि तुम परिचित न हो जाओ; जब तक तुम अनुभव न करने लगो; जब तक तुम्हें अपने चारों ओर के किसी प्रकाश के प्रति, किसी अर्थ के प्रति, किसी सार्थकता के प्रति होश न आ जाये। कठिन बात है एक बार तुम पहली दीक्षा पा लेते हो, तो चीजें घटनी शुरू हो जायेंगी। लेकिन पहली दीक्षा ठन बात है क्योंकि यह बिलकल उल्टा घमना है, एक संपर्ण परिवर्तन विपरीत दिशा में। अचानक तुम्हारे अभिप्राय का संसार तिरोहित हो जाता है। तुम अपरिचित संसार में होते हो। तुम कोई चीज नहीं समझते। कहां बढ़े, क्या करें और इस दुर्व्यवस्था में से क्या बना लें! गुरु का इतना ही मतलब है कि कोई, जो जानता है। और यह अव्यवस्था, यह भीतरी अंधव्यवस्था, उसके लिए अव्यवस्था नहीं है; यह एक व्यवस्था बन गयी है, ब्रह्मांड-सी एक सुव्यवस्था, और वह तुम्हें इसमें ले जा सकता है। दीक्षा का अर्थ है अंतर्जगत में झांकना किसी और की आंखों दवारा। लेकिन बिना श्रद्धा के यह असंभव है क्योंकि तुम अपना हाथ थामने न दोगे। तुम किसी को तुम्हें अज्ञात में ले जाने न दोगे। और गुरु तुम्हें कोई गारंटी नहीं दे सकता। कोई गारंटी किसी काम की न होगी। जो कुछ वह कहे, तुम्हें उसे श्रद्धा पर ग्रहण करना पड़ता पुराने दिनों में, जब पतंजलि अपने सूत्र लिख रहे थे, श्रद्धा बहुत सरल थी। विशेषकर पूरब में और विशेष रूप से भारत में, क्योंकि दीक्षा का एक ढांचा बाहरी संसार में भी निर्मित कर दिया