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तुम फिर क्रोधित न होने का निर्णय ले लेते हो। क्योंकि क्रोध, तुम्हारा अपना शरीर विषमय बना देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, यह तुम्हें दुख देता है। लेकिन अगली बार, जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो अचेतन मन तुम्हारे चेतन तर्क को एक ओर रख देगा। वह फूट पड़ेगा, और तुम क्रोधित हो जाओगे। अचेतन ने तुम्हारे निर्णय के विषय में कुछ भी नहीं जाना है और यही अचेतन है जो सक्रिय शक्ति बना रहता है।
चेतन मन सक्रिय नहीं होता है। वह केवल सोचता है। वह एक विचारक है, वह कर्ता नहीं है। तो क्या करना होता है 'केवल चेतन रूप से सोच लेने से कि कुछ गलत है, तुम उसे रोकने वाले नहीं। तुम्हें अनुशासन पर कार्य करना होगा। और अनुशासन द्वारा चेतन शान तीर की भांति अचेतन में बिंध जायेगा।
अनुशासन के द्वारा, योग के द्वारा, अभ्यास के द्वारा चेतन निर्णय अचेतन में पहुंच जायेगा। और जब यह अचेतन में पहुंचता है, केवल तभी इसका कोई उपयोग होगा। अन्यथा तुम एक ही बात सोचते चले जाओगे, और तुम कुछ बिलकुल ही उल्टा करते जाओगे।
सेंट ऑगस्टीन कहते हैं, 'जो कुछ भी अच्छा मुझे मालूम है मैं हमेशा उसे करने की सोचता हूं। लेकिन जब कभी उसे करने का मौका आता है, मैं हमेशा वही कुछ करूंगा जो गलत है!' यही मानवी दुविधा है।
योग मार्ग है चेतन का सेतु अचेतन से बाधने का। जब हम अनुशासन में और गहरे उतरेंगे तब तुम जागरूक हो जाओगे कि ऐसा किस तरह किया जा सकता है। ऐसा किया जा सकता है। अत: चेतन पर भरोसा न करो। वह निष्क्रिय है। अचेतन सक्रिय हिस्सा है। और केवल यदि तुम अचेतन को बदलते हो, तो ही तुम्हारे जीवन का अलग अर्थ हो जायेगा। वरना तुम और ज्यादा दुख में पड़ जाओगे।
सोचना एक चीज और करना दूसरी चीज, यह बात निरंतर अव्यवस्था, केऑस का निर्माण करेगी। और धीरे-धीरे तुम आत्म-विश्वास खो दोगे। धौर-धीरे तुम अनुभव करोगे कि तुम बिलकुल अक्षम हो, नपुंसक हो कि तुम कुछ नहीं कर सकते। एक आत्म-भर्त्सना उठ खड़ी होगी। तुम अपराधी अनुभव करोगे। और अपराध-भाव ही एकमात्र पाप है।
आज इतना ही।