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प्रवचन 7 वैराग्य और निष्ठापूर्ण अभ्यास
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योगसूत्र:
अभ्यासवैराग्याभ्या तन्निरोधः ॥ 1211
( सतत आंतरिक) अभ्यास और वैराग्य से इन वृत्तियों की समाप्ति की जाती है।
तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ।। 1311
इन दो में, अभ्यास स्वय में दृढ़ता से प्रतिष्ठित होने का प्रयास है।
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽ सेवितो दृद्भूमिः ।। 1411
बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा भरी निष्ठा के साथ लगातार लंबे समय तक इसे जारी रखने से वह दृढ़ अवस्थावाला हो जाता है।
आदमी केवल उसका चेतन मन ही नहीं है। उसके पास चेतन से नौ गुना ज्यादा, मन की
अचेतन परत भी है केवल यही नहीं, आदमी के पास शरीर है- सोमा, जिसमें यह मन विद्यमान होता है। शरीर नितांत अचेतन है उसका कार्य लगभग अनैच्छिक है। केवल शरीर की सतह ऐच्छिक है। आंतरिक स्रोत अनैच्छिक होते हैं, तुम उनके बारे में कुछ नहीं कर सकते। तुम्हारी संकल्पशक्ति प्रभावकारी नहीं है।