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शिखर खड़े किये हैं, वह सच में आज विश्व-विजेता है; लेकिन विश्व-विजयी होकर भी वह आत्मविजयी नहीं हो पाया । मनुष्य, मनुष्य से ही पराजित है । और गहरे उतरें तो आप पायेंगे कि मनुष्य अपने आप से ही हार खा बैठा है । जो बेडिया उसने पहन रखी हैं वे उसको खुद की बनायी हुई हैं। उसने अपने हाथ से ही अपने पैरो मे डाली हैं । अपराजेय की बात करते हुए भवानी मिश्र कहते हैं।
"नही, हम पराजय नहीं ले सकते । आप अपनी मर्जी का भय हमे नहीं दे सकते ।”
आज इस महाकल्प की जरूरत है । मनुष्य का अगला पराक्रम यही होगा कि वह अपना मय खोजे और मिटाये । वे रावण रेखाएँ जिन्हें वह नही लाघ पा रहा है, लाघ जाए। तभी वह अपना आत्म-धर्म पहचान सकेगा, अपने भीतर की आवाज सुन सकेगा, अहिंसा की राह चल सकेगा और मुक्त सास ले सकेगा ।
जीवन मे ?
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