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जहा भय है वहा सब कुछ समाप्त है । गाधीजी ने इसीलिए अपने एकादश व्रतो मे 'सर्वत्र भय वर्जन' जोड लिया था। वे मानते थे-"जो सत्यपरायण रहना चाहे, वह न तो जात-बिरादरी से डरे, न सरकार से डरे, न चोर से डरे, न बीमारी या मौत से डरे, न किसी के बुरा मानने से डरे ।" सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले मनुष्य को सबसे पहले अपने भय से निबटना होगा । सब रावण रेखाएँ तोडनी होगी जो उसने डरकर अपने चारो ओर रच ली हैं। ऐसा किये बिना वह अपने भीतर उग रहे अहकार से, तृष्णा से, मोह-माया से और स्वार्थ से लोहा नहीं ले सकेगा । ये सब काटे भय का कवच धारण करके मनुष्य के भीतर पैठ गये है और पुष्ट हो रहे हैं ।
बाहर से मनुष्य मुक्त है। उसे अपने धर्म पर, अपने ईमान पर, अपने विश्वास पर जीवन जीने की छूट है । अब गुलाम बनने के लिए आपको कोई मजबर नहीं करता । धर्म-परिवर्तन के जिहाद अब हिकारत से देखे जाते है । धर्म-जाति-वर्ग की कैद उठ गयी है-मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए पूरी आजादी है । लीजिए जितनी खुली सास लेते बने । चलिये जितना विवेक से चलते बने। मनुष्यत्व मनुष्य की पहुच से परे नही है ।
फिर भी इन्सान इमानियत जी पा रहा है क्या ? उसका ही ईमान उससे दूर जा पड़ा है। उसे अपनी ही आत्मा की आवाज नही सुनायी दे रही है । उसका विवेक उसकी पकड़ से बाहर है। महावीर ने बहुत सरल नुस्खा दिया- "विवेक से चलो, विवेक से खडे होओ, विवेक से उठो, विवेक से सोओ, विवेक से खाओ, विवेक से बोलो, तो फिर मनुष्य बने रहने मे कोई कोर-कसर नही ।" पर विवेक गिरफ्तार है-वह भय के ताबे मे है । मनुष्य मुक्त होकर भी जेल भुगत रहा है। उसका यह जेलखाना बाहर नही, भीतर है। खुद की रची रेखाएँ, जिन्हें लाघने की हिम्मत वह खो बैठा है ।
आज नही तो कल मनुष्य को अपनी पराजय का यह राज समझना ही होगा । उसने बाहर बहुत मैदान मारे है, पराक्रम के अनेक गौरव
महावीर
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