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जितनी तरह के जितने आवरण उतना ही उसका जीवन समृद्ध । बस एक ही चतुराई मानाष्य को बरतनी है कि आवरण जीवन-पुस्तक पर इस तरह चढाया जाए कि वह भोडा न लगे, कोई यह न समझ ले कि आवरण चढ़ा है (यो यह सब जानते हैं कि पुस्तक तो बन्द है-जो पेश है वह महज आवरण है) और पुस्तक आवरण के लायक है ही नहीं।
मनुष्य की सामाजिक दृष्टि भी ऐसी सध गयी है कि वह सिर्फ आवरण देख कर ही सतुष्ट है । होगी आपकी पुस्तक भीतर से कोरी, धब्बेवाली, काट-छाट वाली, अपनी कर्तव्यहीनता के कारण कुछ नही लिख पाये होगे आप-कोई गिला नही, मनुष्य की आख उतना भीतर का देखती ही नहीं। आखो मे बस जाने वाला आवरण-भर जुटा लिया है आपने तो बस काम हो गया। भीतर उतरने की जरूरत ही नही रह गयी है। मनुष्य को जीवन जीने का एकदम सरल, चलतू नुस्खा मिल गया है । वह खुद भी अब अपने गिरेबान मे झाकना नहीं चाहता। आवरण की चटकमटक से और ऊपरी प्रभाव से वह स्वय भी मुदित है, समाज तो है ही। मनुष्य की चिन्ता का विषय अब यह नही है कि उसने अपनी पुस्तक के कितने सफे लिखे या गलत लिखे हुए मिटाये या भोडे ढग से लिख गये सुधारे, उतकी चिन्ता का विषय यह है कि वह जो दीखना चाहता है वैसा दीख पा रहा है या नहीं। कोन-सी कीमिया उसके हाथ लगे कि वह अपनी चाहत का रग अपने जीवन पर चमका सके। इसलिए वह अपनी पुस्तक लिखने के फेर मे कतई नहीं है, न ही उसे गलत लिखे सफे दुरुस्त करने की फिक्र है, वह तो इस तकनीक की खोज मे, उधेड-बुन मे दिन-रात लगा हुआ है कि करना-धरना कुछ पडे नहीं और रग चोखा हो । पलायन
बात यह है कि अपने गिरेवान मे उतरने मे, अपने जीवन को भीतर से देखने-परखने-समझने में बहुत खतरा है, ऐसा मनुष्य ने मान लिया है।
महावीर